बिहार चुनाव से पहले CM नीतीश कुमार का ऐलान, ‘हम अब इधर-उधर नहीं होने वाले हैं’

पटना

बिहार की राजनीति में साल 2016 के बाद शराबबंदी भी बड़ा मु्द्दा बनकर सामने आया है. यही वह साल था जब नीतीश कुमार की अगुवाई वाली महागठबंधन सरकार ने प्रदेश में पूर्ण शराबबंदी लागू किया था. बिहार चुनाव की दहलीज पर खड़ा है. साल के अंत तक नई सरकार चुनने के लिए विधानसभा चुनाव होने हैं और इन चुनावों में शराबबंदी भी बड़ा मुद्दा बनता नजर आ रहा है.

पूर्व केंद्रीय मंत्री और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के वरिष्ठ नेता आरके सिंह ने हाल ही में शराबबंदी को विफल बताते हुए इसे तुरंत खत्म करने की मांग की थी. जीतनराम मांझी शराबबंदी के गुजरात मॉडल को लागू करने की मांग कर चुके हैं. वहीं, चुनाव रणनीतिकार से राजनेता बने प्रशांत किशोर ने तो सत्ता में आने पर एक घंटे के भीतर शराबबंदी खत्म करने का वादा तक कर दिया है. बिहार सीरीज में आज बात करते हैं इसी शराबबंदी की सियासत की.

साल 2015 के बिहार चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी जनता दल (यूनाइटेड) लालू यादव की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ गठबंधन कर मैदान में उतरी थी. आरजेडी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी लेकिन महागठबंधन का सीएम फेस रहे नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री बने. सरकार गठन के कुछ ही महीनों बाद नीतीश कुमार ने सूबे में पूर्ण शराबबंदी का ऐलान कर दिया.

बिहार में पूर्ण शराबबंदी साल 2016 में लागू हो गई. तब से अब तक कई बार जेडीयू के सहयोगी बदले, शराबबंदी हटाने और पुनर्विचार की मांग उठी. विपक्ष की कौन कहे, सहयोगी भी नाराज हुए. लेकिन सीएम नीतीश अपने फैसले पर अडिग रहे. नीतीश के शराबबंदी पर पीछे नहीं हटने के फैसले के पीछे ये पांच फैक्टर वजह बताए जा रहे हैं.

1- महिला वोटबैंक

बिहार में पूर्ण शराबबंदी के फैसले पर नीतीश कुमार के अडिग रहने के पीछे एक बड़ी वजह महिला वोटबैंक है. कुल 13 करोड़ आबादी वाले बिहार में महिलाओं की भागीदारी छह करोड़ से ज्यादा है. शराबबंदी की मांग भी महिलाएं ही कर रही थीं. साल 2016 में पूर्ण शराबबंदी के फैसले से महिला वोटबैंक पर नीतीश कुमार और उनकी पार्टी की पकड़ मजबूत हुई है. बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने शराबबंदी के प्रावधानों में कुछ ढील जरूर दी, लेकिन फैसले पर अडिग रही तो इसके पीछे महिला वोटबैंक को नाराज नहीं करने की रणनीति भी है.

2- महिला वोटर टर्नआउट

जेडीयू और नीतीश कुमार महिला वोटबैंक को नाराज करने का खतरा मोल नहीं लेना चाहते तो उसके पीछे हाई टर्नआउट भी है. पिछले साल हुए लोकसभा चुनाव की ही बात करें तो बिहार की लोकसभा सीटों पर कुल 56.28 फीसदी वोटिंग हुई थी. इसमें पुरुषों का टर्नआउट 53 फीसदी ही था. महिलाओं ने मतदान के लिए जबरदस्त उत्साह दिखाया.

लोकसभा चुनाव में 59.45 फीसदी महिला मतदाताओं ने पोलिंग बूथ पर पहुंचकर अपने मताधिकार का उपयोग किया था. यह पुरुषों के मुकाबले 6.45 फीसदी अधिक है. महिला वोटबैंक के महत्व को इस बात से भी समझ सकते हैं कि सूबे में 1000 पुरुष मतदाताओं के मुकाबले महिला मतदाताओं की संख्या 907 है. लेकिन टर्नआउट के मामले में यह आंकड़ा 1000 पुरुष मतदाताओं के मुकाबले 1017 तक पहुंच जाता है.

3- हिंसा के मामलों में कमी

बिहार में शराबबंदी के फैसले से हर तरह की हिंसा के मामले घटे हैं. रिपोर्ट्स के मुताबिक घरेलू हिंसा के मामलों में 21 लाख तक की कमी आई है. यौन हिंसा में 3.6 और भावनात्मक हिंसा के मामलों में 4.6 फीसदी कमी आई है. हिंसा के इन तीनों स्वरूप में आई गिरावट के पीछे शराबबंदी को वजह बताया जाता है. घरेलू हिंसा से लेकर यौन और भावनात्मक हिंसा तक, हिंसा की इस प्रवृत्ति का शिकार अधिकतर महिलाएं ही हो रही थीं. आपराधिक मामलों में कमी ने नीतीश कुमार की सुशासन बाबू वाली इमेज को और मजबूत ही किया है.

4- शांति, सौहार्द और स्वास्थ्य

मेडिकल सेक्टर की प्रतिष्ठित वैश्विक पत्रिका लैंसेट ने मई 2024 के अंक में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी. इस रिपोर्ट में यह कहा गया था कि शराबबंदी से लोगों के स्वास्थ्य में सुधार आया है. सार्वजनिक स्थानों पर शराब पीकर हुड़दंग के मामले लगभग शून्य हो गए हैं जिससे शांति और सौहार्द के वातावरण का निर्माण करने में सरकार को सहायता मिली है. शराबबंदी लागू होने के बाद बिहार सरकार के एक आंकड़े में ये जानकारी दी गई थी कि भोजन पर लोगों का हर हफ्ते खर्च 1005 से बढ़कर 1331 रुपये पहुंच गया है. खेती में अधिक समय देने की प्रवृत्ति बढ़ी है और महिलाओं की बचत भी बढ़ गई है.

5- नीतीश की प्रतिष्ठा से जुड़ा मुद्दा

शराबबंदी के फैसले पर अपनों की नाराजगी के बावजूद नीतीश कुमार अडिग रहे तो इसके पीछे एक वजह इस फैसले का खुद उनकी ही प्रतिष्ठा से जुड़ा होना भी है. यह वजह भी हो सकती है कि नीतीश कुमार शराबबंदी पर उठते सवालों को अपने ऊपर सवालिया निशान की तरह लेते हैं. शायद नीतीश को यह भी लगता हो कि शराबबंदी के फैसले पर कदम पीछे खींचे तो यह एक तरह से शराबबंदी की विफलता के आरोप स्वीकार करने जैसा होगा.